बिंदेश्वर पाठक की फाइल फोटो।
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इस शताब्दी की शुरुआत से पहले डॉ. बिंदेश्वर पाठक का नाम आज के मुकाबले ज्यादा बड़ा था। कुछ निजी उलझनों के कारण उन्होंने खुद को समेट लिया था। 80 साल की उम्र में अंतिम सांस लेने वाले डॉ. बिंदेश्वर पाठक पिछली शताब्दी में ही पद्म भूषण से भी नवाजे गए थे। उनके जीवित रहते हुए ही नहीं, उनके जाने के बाद भी कुछ लोग कहते हैं कि उन्हें कांग्रेस से नजदीकी के कारण सम्मान मिला। जबकि, हकीकत यह है कि उन्हें अपने हक की न खुशी मिली और न प्रतिष्ठा। वह देते ही गए। लेने में पीछे रह गए। वजह पूछने पर कई जानकार कहते हैं कि बिहार का जातिवाद और रूढ़ियों से उनका टकराव राजनीति में उनके अछूत रहने की वजह बना।
सत्ता से इतना करीब कोई नहीं होता था तब
पिछली शताब्दी में बिहार की सत्ता कांग्रेस के आसपास ही रहती थी। देश की भी यही स्थिति ज्यादातर समय रही। उस समय सवर्ण और उसमें भी ब्राह्मणों की जगह हमेशा अलग रही। और, डॉ. बिंदेश्वर पाठक तो बिहार के दिवंगत मुख्यमंत्री डॉ. जगन्नाथ मिश्रा के बेहद करीबी थे। सिर्फ सीएम ही नहीं, पीएम से भी उनकी करीबी विख्यात थी। डॉ. पाठक का महत्व तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी जानती थीं। तत्कालीन पीएम राजीव गांधी उन्हें तवज्जो देते थे। सामाजिक कार्यों से अंतरराष्ट्रीय शख्सियत बने डॉ. बिंदेश्वर पाठक फिर भी राजनीति से अछूते क्यों रह गए? उन्हें राज्यसभा या विधान परिषद्, किसी भी तरीके से मौका क्यों नहीं मिला? इस सवाल पर चाणक्या इंस्टीट्यूट ऑफ पॉलिटिकल राइट्स एंड रिसर्च के अध्यक्ष सुनील कुमार सिन्हा कहते हैं- “वह सवर्ण थे। उसमें भी ब्राह्मण। उसपर मैला ढोने की प्रथा के खिलाफ और सुलभ शौचालय जैसे काम के लिए चर्चा में रहते थे। ऐसे लोग तब थे और अब भी हैं, जो उन्हें इस काम के लिए गंदा मानकर अलग-अलग तरह का नाम देते थे या हैं। एक ऐसे ब्राह्मण पर उस समय दांव खेलना किसी भी पार्टी को अच्छा नहीं लगता होगा। तब स्वच्छता की बात करना गंदगी थी और आज कूड़ा वाले की जगह सफाई वाला कहा जाता है- यह बड़ा अंतर आ चुका है। पिछले दो दशकों से डॉ. पाठक ने खुद को लाइमलाइट से दूर रखकर अपना काम जारी रखा, लेकिन जब वह मुख्य धारा और चर्चा में थे तो किसी राजनीतिक दल ने उनपर दांव खेलने की हिम्मत नहीं जुटाई। पहली और बड़ी वजह पूछें तो वह ब्राह्मण होकर मैला से संबंधित काम करने की उनकी जिद थी।”
खुद में ब्रांड होना भी एक वजह हो सकती है
लोकसभा टीवी के पूर्व सीईओ, वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक दल वीआईपी के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष-सह-राष्ट्रीय प्रवक्ता डॉ. राजीव मिश्रा उस जमाने की सोच के साथ दो और बातों का जिक्र करते हैं। वह कहते हैं- “आज जमाना बदल गया है। पिछली शताब्दी की सोच ऐसी हो सकती है, इससे इनकार नहीं किया जा सकता। एक ब्राह्मण के लिए मैला से संबंधित काम करना अजूबा ही था और उसे सहज स्वीकारना उतना आसान शायद नहीं रहा होगा। लेकिन, सिर्फ एक वही कारण नहीं रहा होगा। राजनीति में कई बार खुद आगे आना पड़ता है और मुझे लगता है कि उस जमाने में उन्होंने कभी खुलकर किसी राजनीतिक दल का दामन शायद नहीं थामा होगा। इसके अलावा एक महत्वपूर्ण वजह यह भी हो सकती है कि डॉ. बिंदेश्वर पाठक 1985 से 2000 के बीच बहुत बड़े ब्रांड थे। 1995 तक तो उन्हें सत्तारूढ़ दल, जो चाहता- दे सकता था। क्यों नहीं दिया गया, यह उस समय के लोग बता सकते हैं। अब वैसे ज्यादातर लोग या तो हैं नहीं या फिर प्रासंगिक नहीं। इस दौर में भी नहीं मिला, जबकि उनके लायक होने में कोई शक तो कर ही नहीं सकते।”