जातीय जनगणना
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बिहार में जाति आधारित जनगणना की प्रक्रिया आगे बढ़ेगी या रुकी रहेगी? मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और महागठबंधन सरकार के ड्रीम प्रोजेक्ट का क्या होगा? “जाति जनगणना तो होकर रहेगी”- कहने वाले राजद अध्यक्ष लालू प्रसाद के दावे का क्या होगा? बिहार के सत्ता-प्रतिपक्ष के लगभग तमाम राजनीतिक दलों ने जाति जन-गणना में हामी भरी थी, लेकिन आमजनों के समूह ने इसे कोर्ट में चैलेंज किया और इसपर अंतरिम रोक लग गई। तो अब आगे क्या होगा? यह सवाल आज इसलिए, क्योंकि कल शुक्रवार को देश के सर्वोच्च न्यायालय में इसकी सुनवाई की तारीख है और अबतक पटना हाईकोर्ट ने इसपर अंतिम फैसला नहीं दिया है।
अंतरिम फैसले पर सुप्रीम कोर्ट से राहत नहीं
राज्य सरकार के अनुसार यह जाति आधारित सर्वे है, जिसमें जानकारी देना बाध्यकारी नहीं है। दूसरी ओर, इसके खिलाफ दायर याचिकाओं पर सुनवाई के बाद पटना हाईकोर्ट ने 04 मई 2023 को अंतरिम आदेश में लिखा था कि पहली नजर में यह जाति के आधार पर जन-गणना लग रही है, जिसका अधिकार राज्य को नहीं है। चीफ जस्टिस के विनोद चन्द्रन व जस्टिस मधुरेश प्रसाद की खंडपीठ ने अंतरिम रोक लगाते हुए मामले में दायर याचिकाओं पर सुनवाई के लिए 3 जुलाई 2023 की तिथि निर्धारित की थी। सुप्रीम कोर्ट ने भी पटना हाईकोर्ट के अंतरिम आदेश आदेश पर रोक लगाने से इनकार कर दिया था। साथ ही मामले की सुनवाई हेतु पटना हाई कोर्ट के समक्ष भेज दिया था। सुप्रीम कोर्ट ने भी इसे पहली नजर में जन-गणना कहा गया, लेकिन आदेश यह दिया गया कि पहले हाईकोर्ट अंतिम फैसले के लिए सुनवाई कर ले, फिर 14 जुलाई को सुनवाई करेंगे।
हाईकोर्ट के फैसले के बाद ही सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई
14 जुलाई कल ही है, लेकिन हाईकोर्ट ने अंतिम फैसला नहीं सुनाया है। ऐसे में वरीय विधि विशेषज्ञों का मानना है कि सुप्रीम कोर्ट से तारीख बढ़ाई जाएगी, क्योंकि पटना हाईकोर्ट ने सुप्रीम कोर्ट के आदेशानुसार 13 जुलाई के पहले सुनवाई पूरी कर ली है। फैसला सुरक्षित है, इसलिए अब यहां फैसला आने के बाद ही सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई होगी। 13 जुलाई को भी पटना हाईकोर्ट की सूची में यह नहीं था, मतलब यही है कि सुप्रीम कोर्ट से तारीख मिलेगी।
पटना हाईकोर्ट में क्या हुआ, यह जानना रोचक
पटना हाईकोर्ट में चीफ जस्टिस के विनोद चंद्रन व जस्टिस पार्थ सारथी की खंडपीठ के समक्ष 03 जुलाई को अंतरिम फैसले से आगे की सुनवाई शुरू हुई। सुप्रीम कोर्ट की अधिवक्ता अपराजिता सिंह ने पहले दिन याचिकाकर्ता का पक्ष रखते हुए कहा कि यह आधार एक्ट, गोपनीयता व निजता का उल्लंघन है। आगे बताया कि यह सर्वे के आड़ में जनगणना है। जाति की परिभाषा नहीं। 1931 के जनगणना में भी कहा गया था कि जाति कोई कानूनी शब्द नहीं है। जाति नहीं बताने का भी विकल्प है। उन्होंने दलील रखी कि यह भारत के संविधान के अनुच्छेद 14, 19 और 21 का उल्लंघन है। अगले दिन, सुनवाई के दौरान याचिकाकर्ता के अधिवक्ता अभिनव श्रीवास्तव ने कोर्ट को बताया कि राज्य सरकार जाति और आर्थिक सर्वेक्षण करा रही है। उन्होंने बताया कि सर्वेक्षण कराने का यह अधिकार राज्य सरकार के अधिकार क्षेत्र के बाहर है। यह असंवैधानिक भी है और समानता के अधिकार का उल्लंघन भी।
सरकार की दलील भी रोचक रही हाईकोर्ट में
दो दिनों तक याचिकाकर्ता का पक्ष सुनने के बाद जब हाईकोर्ट ने सरकार को अपना पक्ष रखने का समय दिया तो राज्य सरकार के महाधिवक्ता पी के शाही ने दलील रखी। महाधिवक्ता ने कहा कि सर्वे का 80 फीसदी काम पूरा हो चुका है। राज्य सरकार ऐसे सर्वे करवाने के लिए लिए सक्षम है। सरकार लोगों की सामाजिक और आर्थिक स्थिति का पता लगाना चाहती है और यही उद्देश्य है ताकि भविष्य में इसका इस्तेमाल किया जा सके। राज्य सरकार द्वारा किये जाने वाला सर्वे जनगणना की तरह नहीं है। सर्वे स्वेच्छा से किया जाने वाला कार्य है। इसमें किसी तरह का दबाव बनाने और धमकी देकर करवाने वाली बात नहीं है। वर्ष 2011 में केंद्र द्वारा जाति आधारित सर्वे करवाया गया, लेकिन इसे जारी नहीं किया गया। उन्होंने कहा कि सभी वर्ग के लोग अपनी- अपनी जाति के संबंध में जाति का आंकड़े का दावा करते हैं, इसलिए इस सर्वे से सही स्थिति का पता लगेगा ताकि इनके लाभ के लिए योजनाएं बनाई जा सके। उन्होंने यह भी कहा कि जो आंकड़ा राज्य सरकार इकट्ठा करना चाहती है, वह किसी न किसी रूप में पब्लिक डोमेन में है और यह किसी के अधिकार और कानून में हस्तक्षेप करने वाला नहीं है।