ललन को ही बनना था जदयू अध्यक्ष: लव-कुश साध चुकी पार्टी की नजर अब भाजपा के ‘भू’ बैंक पर


जदयू के राष्ट्रीय अध्यक्ष निर्विरोध बने ललन सिंह।
– फोटो : अमर उजाला

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लालू प्रसाद यादव ने पिछली शताब्दी में एक नारा दिया था- भूरा बाल…! देश की राजनीति से रत्ती भर इत्तफाक रखने वालों को भी यह नारा पूरा याद होगा। यह नारा देने वाले भी समय के साथ इसपर ठिठके, लेकिन इसके शुरुआती चार संक्षेपाक्षर- ‘भू’ ‘रा’ ‘बा’ ‘ल’ बिहार की राजनीति में कील ठोक कर बैठ गए। हां, 20 साल में अंतर जरूर आया है। अंतर यह कि ‘साफ करो’ की जगह ‘माफ करो’ चल रहा है अब। गहन विश्लेषण करें तो कारण है केंद्रीय राजनीति में नरेंद्र मोदी के साथ भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) का बढ़ा ग्राफ। बिहार में उस ग्राफ को गिराने के लिए ‘बा’ (ब्राह्मण) और ‘ल’ (लाला- कायस्थ) में संभावना नहीं देख अब राज्य की पूरी जातीय राजनीति ‘भू’ (भूमिहार) और ‘रा’ (राजपूत) के आसपास ठहरी दिख रही है। राजीव रंजन सिंह उर्फ ललन सिंह का जनता दल यूनाईटेड (जदयू) का राष्ट्रीय अध्यक्ष निर्विरोध चुना जाना कहीं न कहीं उसी का फलाफल कह सकते हैं। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के प्रस्तावक बनने के बाद ललन सिंह के निर्विरोध निर्वाचन की घोषणा सोमवार को भले की गई, लेकिन ‘अमर उजाला’ ने 26 नवंबर को ही साफ कर दिया था कि जदयू में कुछ बदलाव नहीं होना है। ललन ही राष्ट्रीय अध्यक्ष के पहले और अंतिम विकल्प हैं।
भाजपा की ‘भू-शक्ति’ है जदयू का लक्ष्य, इसलिए ललनभूमिहार जाति की बिहार की राजनीति में बड़ी दखल है। वोटों के हिसाब से जितनी है, उससे अधिक नेतृत्व के हिसाब से भी है। यह जाति जागरूक भी बहुत है। राष्ट्रवादी भी कम नहीं। जागरूक इसलिए क्योंकि चारों अगड़ी जातियों- भूमिहार, राजपूत, ब्राह्मण और कायस्थ में भूमिहार ही एक है, जिसे सम्मानजनक प्रतिनिधित्व नहीं मिलने पर ठीक से बगावत करने आता है। इस जाति पर भाजपा का वर्चस्व माना जाता है और जब-जब पार्टी के कुछ नेताओं ने बिहार में भूमिहार विरोधी स्टैंड लिया तो खामियाजा तत्काल दिखा है। राष्ट्रवादी कहने के पीछे भी तर्क है, क्योंकि भाजपा अभी इस शब्द पर खूब चल रही है। यह जाति खास तौर पर राष्ट्रवादी इतनी है कि बेगूसराय में पूरे देश के मोदी विरोधी धुरंधर जुट गए, तब भी गिरिराज सिंह के सामने जेएनयू के हीरो कन्हैया कुमार नहीं चले। भूमिहार वोटरों ने ज्यादातर बार दिखाया है कि वह मन-कर्म-वचन से भाजपा के साथ हैं, लेकिन कई बार उसने खुद को किनारे लगाए जाने पर भाजपा को भी बगावत का प्रमाण सौंपा है। वह भी खुलकर। ऐसे में भाजपा के इस एकमुश्त वोट पर जदयू की नजर अस्वाभाविक नहीं है।
जदयू में राम के बाद भी लव-कुश मजबूत, इसलिए भी ललनजदयू में 2020-21 के दौरान बहुत कुछ हुआ था। पहले वह समझेंगे तो 2022 के अंत में सामने आ रही स्थितियां स्पष्ट हो जाएंगी। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार कुर्मी जाति से हैं। इसे बिहार में ‘लव’ कहा जाता है। इसकी जाति की अनुषंगी जाति है कुशवाहा, जिसे ‘कुश’ कहा जाता है। नीतीश कुमार और जदयू की राजनीति अरसे से ‘लव-कुश’ के आसपास रही है। जब नीतीश कुमार ने जदयू के राष्ट्रीय अध्यक्ष की कुर्सी छोड़ी तो सौंपी रामचंद्र प्रसाद सिंह, यानी आरसीपी को। आरसीपी भी लव ही हैं। जब राष्ट्रीय अध्यक्ष की कुर्सी लव को मिल गई तो कुश को प्रदेश अध्यक्ष बनाना ही था, सो अचानक बाकी तमाम नामों को पीछे धकेलते हुए उमेश कुशवाहा प्रदेश अध्यक्ष मनोनीत किए गए थे। मतलब, लव-कुश का संतुलन ठीक था। लेकिन, जब आरसीपी केंद्र में मंत्री बने और भाजपा के करीब दिखने लगे तो जदयू ने भी भाजपा की काट निकाली। नीतीश कुमार से दूर-करीब होते रहे, लेकिन भूमिहार जाति के बड़े नेता ललन सिंह को राष्ट्रीय अध्यक्ष की कुर्सी सौंप दी गई। यह कुर्सी इसलिए भी सौंपी गई, क्योंकि आरसीपी के केंद्र में मंत्री बनने और ललन सिंह के नहीं बनने से भूमिहार जाति के नेता जदयू से खफा के मोड में जा रहे थे। इसलिए, तब उन्हें इस कुर्सी पर मनोनीत किया गया। इस बार जब जदयू का सांगठनिक चुनाव आया तो फिर लव-कुश समीकरण देखा गया। लव समूह से मुख्यमंत्री के रूप में नीतीश कुमार कुर्सी पर पहले से हैं तो नवंबर अंत में हुए चुनाव के दौरान कुश समूह से प्रदेश अध्यक्ष पद पर कायम रखे गए उमेश कुशवाहा। रामचंद्र के जाने के बाद भी लव-कुश की मजबूती सुनिश्चित हुई तो भाजपा को काटने के लिए उसकी ‘भू-शक्ति’ का तोड़ ललन सिंह ही पहले और अंतिम विकल्प थे।
रही बात ‘रा’ की तो उसे साधने की जिम्मेदारी राजद के कंधे परमुख्यमंत्री नीतीश कुमार केंद्र की राजनीति में दिलचस्पी दिखा चुके हैं। भाजपा के साथ मिले जनादेश को छोड़ राजद के साथ जाने के उनके निर्णय को नरेंद्र मोदी के खिलाफ दूसरी और अहम बगावत कहें तो गलत नहीं होगा। ऐसे में प्रदेश में राजद की ‘भूमिका’ बढ़ाने की भूमिका लिखी जा चुकी है। लालू प्रसाद यादव ठीक होकर लौटेंगे तो एक बार फिर माहौल बनेगा कि नीतीश देश देखेंगे और तेजस्वी प्रदेश। जदयू इसे टाइमपास भले कहे, लेकिन राजद के अंदर इसपर कोई कन्फ्यूजन नहीं है। यह उसी दिन से दिख रहा, जब तेजस्वी के साथ नीतीश महागठबंधन की सरकार बनाने राजभवन गए थे। इस स्थिति में जदयू ने एक तरह से ‘रा’, यानी राजपूत को संभालने की जिम्मेदारी राजद पर ही छोड़ दी है। वैसे भी जदयू के मुकाबले राजद में राजपूत नेता ज्यादा दमदार रहे हैं। जेहन में नाम चाहे बाहुबली प्रभुनाथ सिंह का आए या जीवन की अंतिम बेला से पहले तक लालू के सबसे करीबी रहे रघुवंश सिंह का। अब भी जगदानंद सिंह राजद के प्रदेश अध्यक्ष हैं। तेज प्रताप समेत यादव जाति के कई नेता भले जो कहें, लेकिन लालू प्रसाद यादव ने सिंगापुर जाते समय जगदानंद को साफ कहा- “हम ऑपरेशन कराने जा रहे हैं, आप यहां संभालिए।” जगदानंद सिंह ने भी अपने राष्ट्रीय अध्यक्ष की बात नहीं टाली। तेजस्वी के साथ प्रदेश कार्यालय आए, जबकि वह अपने पुत्र के मंत्रीपद छिनने से नाराज बताए जा रहे थे। बहुत कुछ अंदरखाने हुआ, लेकिन बिहार की विपक्ष राजनीति के सबसे मजबूत राजपूत नेता जगदानंद सिंह राजद के साथ खड़े हैं।

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लालू प्रसाद यादव ने पिछली शताब्दी में एक नारा दिया था- भूरा बाल…! देश की राजनीति से रत्ती भर इत्तफाक रखने वालों को भी यह नारा पूरा याद होगा। यह नारा देने वाले भी समय के साथ इसपर ठिठके, लेकिन इसके शुरुआती चार संक्षेपाक्षर- ‘भू’ ‘रा’ ‘बा’ ‘ल’ बिहार की राजनीति में कील ठोक कर बैठ गए। हां, 20 साल में अंतर जरूर आया है। अंतर यह कि ‘साफ करो’ की जगह ‘माफ करो’ चल रहा है अब। गहन विश्लेषण करें तो कारण है केंद्रीय राजनीति में नरेंद्र मोदी के साथ भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) का बढ़ा ग्राफ। बिहार में उस ग्राफ को गिराने के लिए ‘बा’ (ब्राह्मण) और ‘ल’ (लाला- कायस्थ) में संभावना नहीं देख अब राज्य की पूरी जातीय राजनीति ‘भू’ (भूमिहार) और ‘रा’ (राजपूत) के आसपास ठहरी दिख रही है। राजीव रंजन सिंह उर्फ ललन सिंह का जनता दल यूनाईटेड (जदयू) का राष्ट्रीय अध्यक्ष निर्विरोध चुना जाना कहीं न कहीं उसी का फलाफल कह सकते हैं। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के प्रस्तावक बनने के बाद ललन सिंह के निर्विरोध निर्वाचन की घोषणा सोमवार को भले की गई, लेकिन ‘अमर उजाला’ ने 26 नवंबर को ही साफ कर दिया था कि जदयू में कुछ बदलाव नहीं होना है। ललन ही राष्ट्रीय अध्यक्ष के पहले और अंतिम विकल्प हैं।

भाजपा की ‘भू-शक्ति’ है जदयू का लक्ष्य, इसलिए ललन

भूमिहार जाति की बिहार की राजनीति में बड़ी दखल है। वोटों के हिसाब से जितनी है, उससे अधिक नेतृत्व के हिसाब से भी है। यह जाति जागरूक भी बहुत है। राष्ट्रवादी भी कम नहीं। जागरूक इसलिए क्योंकि चारों अगड़ी जातियों- भूमिहार, राजपूत, ब्राह्मण और कायस्थ में भूमिहार ही एक है, जिसे सम्मानजनक प्रतिनिधित्व नहीं मिलने पर ठीक से बगावत करने आता है। इस जाति पर भाजपा का वर्चस्व माना जाता है और जब-जब पार्टी के कुछ नेताओं ने बिहार में भूमिहार विरोधी स्टैंड लिया तो खामियाजा तत्काल दिखा है। राष्ट्रवादी कहने के पीछे भी तर्क है, क्योंकि भाजपा अभी इस शब्द पर खूब चल रही है। यह जाति खास तौर पर राष्ट्रवादी इतनी है कि बेगूसराय में पूरे देश के मोदी विरोधी धुरंधर जुट गए, तब भी गिरिराज सिंह के सामने जेएनयू के हीरो कन्हैया कुमार नहीं चले। भूमिहार वोटरों ने ज्यादातर बार दिखाया है कि वह मन-कर्म-वचन से भाजपा के साथ हैं, लेकिन कई बार उसने खुद को किनारे लगाए जाने पर भाजपा को भी बगावत का प्रमाण सौंपा है। वह भी खुलकर। ऐसे में भाजपा के इस एकमुश्त वोट पर जदयू की नजर अस्वाभाविक नहीं है।
जदयू में राम के बाद भी लव-कुश मजबूत, इसलिए भी ललन
जदयू में 2020-21 के दौरान बहुत कुछ हुआ था। पहले वह समझेंगे तो 2022 के अंत में सामने आ रही स्थितियां स्पष्ट हो जाएंगी। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार कुर्मी जाति से हैं। इसे बिहार में ‘लव’ कहा जाता है। इसकी जाति की अनुषंगी जाति है कुशवाहा, जिसे ‘कुश’ कहा जाता है। नीतीश कुमार और जदयू की राजनीति अरसे से ‘लव-कुश’ के आसपास रही है। जब नीतीश कुमार ने जदयू के राष्ट्रीय अध्यक्ष की कुर्सी छोड़ी तो सौंपी रामचंद्र प्रसाद सिंह, यानी आरसीपी को। आरसीपी भी लव ही हैं। जब राष्ट्रीय अध्यक्ष की कुर्सी लव को मिल गई तो कुश को प्रदेश अध्यक्ष बनाना ही था, सो अचानक बाकी तमाम नामों को पीछे धकेलते हुए उमेश कुशवाहा प्रदेश अध्यक्ष मनोनीत किए गए थे। मतलब, लव-कुश का संतुलन ठीक था। लेकिन, जब आरसीपी केंद्र में मंत्री बने और भाजपा के करीब दिखने लगे तो जदयू ने भी भाजपा की काट निकाली। नीतीश कुमार से दूर-करीब होते रहे, लेकिन भूमिहार जाति के बड़े नेता ललन सिंह को राष्ट्रीय अध्यक्ष की कुर्सी सौंप दी गई। यह कुर्सी इसलिए भी सौंपी गई, क्योंकि आरसीपी के केंद्र में मंत्री बनने और ललन सिंह के नहीं बनने से भूमिहार जाति के नेता जदयू से खफा के मोड में जा रहे थे। इसलिए, तब उन्हें इस कुर्सी पर मनोनीत किया गया। इस बार जब जदयू का सांगठनिक चुनाव आया तो फिर लव-कुश समीकरण देखा गया। लव समूह से मुख्यमंत्री के रूप में नीतीश कुमार कुर्सी पर पहले से हैं तो नवंबर अंत में हुए चुनाव के दौरान कुश समूह से प्रदेश अध्यक्ष पद पर कायम रखे गए उमेश कुशवाहा। रामचंद्र के जाने के बाद भी लव-कुश की मजबूती सुनिश्चित हुई तो भाजपा को काटने के लिए उसकी ‘भू-शक्ति’ का तोड़ ललन सिंह ही पहले और अंतिम विकल्प थे।

रही बात ‘रा’ की तो उसे साधने की जिम्मेदारी राजद के कंधे पर
मुख्यमंत्री नीतीश कुमार केंद्र की राजनीति में दिलचस्पी दिखा चुके हैं। भाजपा के साथ मिले जनादेश को छोड़ राजद के साथ जाने के उनके निर्णय को नरेंद्र मोदी के खिलाफ दूसरी और अहम बगावत कहें तो गलत नहीं होगा। ऐसे में प्रदेश में राजद की ‘भूमिका’ बढ़ाने की भूमिका लिखी जा चुकी है। लालू प्रसाद यादव ठीक होकर लौटेंगे तो एक बार फिर माहौल बनेगा कि नीतीश देश देखेंगे और तेजस्वी प्रदेश। जदयू इसे टाइमपास भले कहे, लेकिन राजद के अंदर इसपर कोई कन्फ्यूजन नहीं है। यह उसी दिन से दिख रहा, जब तेजस्वी के साथ नीतीश महागठबंधन की सरकार बनाने राजभवन गए थे। इस स्थिति में जदयू ने एक तरह से ‘रा’, यानी राजपूत को संभालने की जिम्मेदारी राजद पर ही छोड़ दी है। वैसे भी जदयू के मुकाबले राजद में राजपूत नेता ज्यादा दमदार रहे हैं। जेहन में नाम चाहे बाहुबली प्रभुनाथ सिंह का आए या जीवन की अंतिम बेला से पहले तक लालू के सबसे करीबी रहे रघुवंश सिंह का। अब भी जगदानंद सिंह राजद के प्रदेश अध्यक्ष हैं। तेज प्रताप समेत यादव जाति के कई नेता भले जो कहें, लेकिन लालू प्रसाद यादव ने सिंगापुर जाते समय जगदानंद को साफ कहा- “हम ऑपरेशन कराने जा रहे हैं, आप यहां संभालिए।” जगदानंद सिंह ने भी अपने राष्ट्रीय अध्यक्ष की बात नहीं टाली। तेजस्वी के साथ प्रदेश कार्यालय आए, जबकि वह अपने पुत्र के मंत्रीपद छिनने से नाराज बताए जा रहे थे। बहुत कुछ अंदरखाने हुआ, लेकिन बिहार की विपक्ष राजनीति के सबसे मजबूत राजपूत नेता जगदानंद सिंह राजद के साथ खड़े हैं।



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